"बुझ भी गया अगर..."
बुझ भी गया ग़र
ये अंत नहीं है मेरा।
जल उठूंगा फिर से
मिटा दूंगा सारा अंधेरा।
काट भी दोगे मेरे पर गर
लुंगा ऊंची उड़ान फिर भी।
रोक सके ऐसी कोई दीवार नहीं,
ना ही कोई घेरा।
मेरा घम जलाने की
करलो कितने ही प्रयत्न निरंतर
किसी मे इतना सामर्थ्य नहीं
कि उजाड़ सके मेरा डेरा।
बंद करादो आंखों को,
बांध दो पैरो को जंजीरों से,
काले कलंकित तम ने क्या
रोक सका होने से सवेरा?
कह दो विपत्तियों की आंधी से-
बुराइयों की सुनामी से कि आकर दिखाए।
इस मांझी ने भी विकट मौज पर
लगाया है अपना बसेरा
चाहे बादल छाए या तूफान मंडराए।
फिर भी बढ़ेंगे मेरे कदम
रूकावटो से डर कर थम जाऊ!
कमजोर नहीं है हौसला मेरा।
*इसे मेरी Quora प्रोफ़ाइल पर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
*****
(यह कविता मेरी पसंदीता मराठी कविता से प्रेरित होकर मैंने लिखी है। शायद आपको पसंद आए। बहुत ही प्रेरणादायक मराठी कविता "विझलो आज जरी मी"जो की कविवर ' सुरेश भट' जी ने रची है। उन्ही से प्रेरित होकर लिखने की नादान कोशिश की है। यह पूर्णरूपेण मराठी कविता का भाषांतर तो नहीं लेकिन शब्दों के अर्थ प्रयोग का उद्देश्य यथावत रखने की छोटी सी कोशिश जरूर की है।)
*****
No comments:
Post a Comment